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January to March 2024 Article ID: NSS8477 Impact Factor:7.60 Cite Score:25343 Download: 224 DOI: https://doi.org/19 View PDf
नागार्जुन के उपन्यासों में स्त्री पात्रों की भूमिका
श्रीमती गंगा
शोधार्थी (हिन्दी) बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल (म.प्र.)
प्रस्तावना
-नागार्जुन को हम आज बाबा, वैद्यनाथ मिश्र या
आधुनिक युग का कवि कहते है, उनके साहित्य में अंगारों सा ताप, जाति, ऊँच-नीच तथा आत्मीयता
से भरा व्यक्तित्व उभर कर आता है। नागार्जुन का जन्म, उनके ननिहाल सतलखा ग्राम पोस्ट
मधुबनी जिला दरभंगा में 30 जून 1911 को हुआ था। उनके पिता का नाम श्री गोकुल मिश्र
तथा माता का नाम उमादेवी था। सामाजिक चेतना, वैचारिक प्रतिबद्धता और अभिव्यक्ति कौषल
की दृष्टि से इनकी रचनाएं अद्भुत है। हिन्दी कविता को छायावादी संस्कारों से मुक्त
कर उसके सहज विकास की एक दिशा निश्चित करने में इनका बहुत बड़ा योगदान रहा है, अपनी
अभावग्रस्त पारिवारिक स्थिति होने के बावजूद वे सदैव संघर्ष करते हुए भी मस्त यायावर,
जिजीविषा से भरपूर जीवन जीने वाले बाबा नागार्जुन को सभी हिन्दी के प्रगतिशील कवि के
रूप में ज्यादा जानते पहचानते है, बाबा नागार्जुन ने कई उपन्यास, कहानियाँ, अनेक निबंध,
संस्मरण, डायरी, नाटकों की रचना की है। बाबा नागार्जुन का अनुभव - संसार इतना गहरा
कहने की अभिलाषा इतनी सघन और संवेदशीलता इतनी तीव्र थी कि उन्हें अपने कथन पर अधिक
जोर देकर कह देने की जितनी तीव्र धुन थी, उतनी कैसे और कितना कह दें इसकी नहीं। फलस्वरूप
कुछ आलोचक उनकी रचनाओं में शैलीगत कसावट की कमी को रेखांकित करते हैं। संस्कृत, हिन्दी,
मैथिली, बंगला, पालि, प्रजाबी, गुजराती आदि भाषाओं के जानकार बाबा को भाषा के प्रति
गहरा लगाव था। बाबा नागार्जुन की रचना में भी भाषा की सहजता, सरलता, सजगता व पात्रतानुकूलता
दिखाई देती है। उच्च वर्ग से लेकर निम्न वर्ग, ग्रामीण नागरिक, स्त्री-पुरूष के भावगत
मानसिक पार्थक्य को वे बखूगी व्यक्त करते हैं, उनकी भाषा यथार्थ जीवन संदर्भों की भाषा
है, उनके उपन्यासों की भाषा संरचना में तत्सम, तद्भव, अरबी, फारसी, अंग्रेजी, लाक्षणिक
शब्दों का प्रयोग भी बखूबी हुआ है। घुट-घुट कर मरना नहीं, मर-मर कर भी जीने का संकल्प,
अदम्य जिजीविषा, संगठित होकर लड़ने, रूढ़ियों को तोड़कर आगे बढ़ने, चेतन होने का भाव उनकी
रचनाओं के कथ्य में गुम्फित है, उनका कथन यथार्थ का वर्णन करके मात्र रूक नहीं जाता
अपितु विकल्प खोजता दिखाई देता है। ऐसे बाबा शारीरिक रूप से आज इस संसार में चाहे न
हों, पर उनके विचार, उनकी संघर्ष-भावना व आस्था उनकी रचनाओं के माध्यम से आगामी पीढ़ियों
तक कायम रहेगी।