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January to March 2024 Article ID: NSS8494 Impact Factor:7.60 Cite Score:11477 Download: 150 DOI: https://doi.org/46 View PDf
हिन्दी लोक नाट्य की परम्परा
डाॅ. श्रीमती बिन्दू परस्ते
सहा. प्राध्यापक (हिन्दी) श्री अटल बिहारी वाजपेयी, शा. कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, इन्दौर (म.प्र.)
प्रस्तावना- लोक जीवन में लोक
नाट्यों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। लोक नाट्यों का जन्म कब हुआ यह तो निश्चित रूप
से नही कहा जा सकता, लेकिन लगता है कि आदिकाल से आदिमानव का मन जब वलों मे रहते -रहते
ऊब जाता होगा, तो वह बन्दर और भालूओं को नचाकर अपना मनांरंजन करता आया होगा। चूँकि
‘नट‘ धातु से ही ‘नाट्य‘ शब्द बना है। इससे नाटकों के विकास में ‘नृत्य‘ के महत्वपूर्ण
स्थान का पता चलता है।
नाट्य कला अपने विकास के प्रारंभिक काल में आदमी के सामान्य
सामाजिक जीवन के साथ जुड़ने के अतिरिक्त उसकी धार्मिक गतिविधियों के साथ भी जुड़ी। कितने
ही नाटक विभिन्न मानव समुदायों की विभिन्न धार्मिक संस्थाओं के आधार पर रचे और प्रदर्शित
किए जाते है। रामलीला, इंद्रसभा, कृष्णलीला, राजा हरिशचन्द्र, कितने ही प्राचीन नाटक
ऐसे है जो शताब्दियों तक भारत के जनमानस की अभिरूचि तथा उसकी धार्मिक आस्थाओं के साथ
जुडे रहे और करोड़ों लोगो के आकर्षण का केन्द्र बन रहे। आज भी गाॅव-गाॅव और शहर-शहर
में अन नाटकों का प्रदर्शन होता है और आज भी असंख्य लोग इनसे भावनात्मक स्तर पर जुडे
हुए है। यह कहना अनुचित न होगा कि समय के साथ विककित होती गई नाट्यकला को नियमित मंच
तो बहुत बाद में मिला। भारत में तो ये खुले मैदानों अथवा छायादार वृक्षों के नीचे पलती
रही। नोटंकी हो या कठपुतली का तमाशा, रामलीला हो या रासलीला बिना मुसजित्त एवं सुव्यवस्थित
मंच के ही भारी जनसमूह के बिना इतना प्रदर्शन किया जाता रहा इन्हें हम नाट्य कलाओं
के प्रारंभिक रूप भी वह सकते है।