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January to March 2024 Article ID: NSS8500 Impact Factor:7.60 Cite Score:17001 Download: 183 DOI: https://doi.org/52 View PDf
बनारस घराने में टप्पा गायन
डाॅ. निलांभ राव नलवडे
संगीत शिक्षक, केन्द्रीय विद्यालय, दापोरिजो (अरूणाचल प्रदेश)
प्रस्तावना- टप्पा मूलतः पंजाब
में ऊँट चराने वालों के द्वारा गायी जाने वाली लोक शैली थी, जिसने बाद में आकर्षक शैली
हो जाने के कारण संगीत में अपना स्थान बना लिया है। ‘‘टप्पा से मतलब मैदानी जमीन से
है, ऊँटहार जब अपने गाँवों से ऊँटों पर सामान लादकर शहर में आते व वापसी में एक बोल
बनाकर वापस अपने घरों में जाते, उसी समय रास्ता यानि टप्पा, दो टप्पा, चार टप्पा, सुनसानी
मैदानी रास्ते को काटने के लिए अपनी पंजाबी जुबान में गाते चले जाते थे। इसी गाने का
नाम टप्पा पड़ गया।
पंजाब में ‘‘गुलाम नबी उर्फ शोरी मियाँ’’ को ‘टप्पा’ का आविष्कारक माना गया है। शोरी मिया में कविता की रचना करने की अद्भुत शक्ति थी, उन्होंने टप्पा की रचना ऊँटहारों की गायन शैली पर की। इस नवीन शैली ने लोगों को इतना प्रभावित किया कि गायक वर्ग इसकी अवहेलना न कर, इसको सीखने लगा। ‘‘टप्पा प्रायः पंजाबी अथवा हिन्दी मिश्रित पंजाबी भाषा का गीत है।’’
टप्पा गायन शैली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें खटके, मुर्की, द्रुत लय में छोटी-छोटी वक्र तानों का प्रयोग तुरन्त व सहज रूप से होता है। इस शैली ने शास्त्रीय संगीत को काफी प्रभावित किया है, जिसके फलस्वरूप इसे उप-शास्त्रीय संगीत के अन्तर्गत रखा गया है। प्रायः सभी टप्पे अद्धाताल में गाये जाते हैं। कुछ लोग इसे पंजाबी ताल भी कहते हैं। प्रायः टप्पा मध्य लय में ही गाया जाता है, जिन गायकों का गला तैयार होता है, वे तेज मध्य लय में भी टप्पा गाते हैं। टप्पे की प्रकृति चंचल होती है।