• October to December 2024 Article ID: NSS8843 Impact Factor:8.05 Cite Score:8158 Download: 126 DOI: https://doi.org/ View PDf

    प्राचीन भारत में धर्म

      डॉ. मधु वालिया
        प्राचार्य, अमरनाथ भगत जयराम कन्या महाविद्यालय, सेरधा, जिला कैथल (हरियाणा)

शोध सारांश- भारतियों का जीवन प्राचीन काल से धर्मगत उत्ंकठा से अनुप्राणित रहा है। जिसमें नैतिक मूल्यों, आधारगत अभिव्यक्तियों तथा जग निनयंता के प्रतिसमर्पण भावना का सन्निवेश था, जिसके माध्यम से व्यक्ति लौकिक उत्कर्ष के साथ-2 अध्यात्मिक उत्कर्ष करता था। सम्पूर्ण समाज का वर्ण के आधार पर समुचित और सुनिश्चित विभाजन नैतिक मूल्यों और धर्म से प्रभावित होकर किया गया था। विभिन्न वर्गो के कर्माे का निरुपण भी सदाचार और धर्म से प्रेरित तथा अनुप्राणित था। अत एंव इसे वर्ण धर्म की संज्ञा दी गई थी। धर्म का व्यावहारिक महत्व कर्तव्य का समुचित पालन था इसी प्रकार आश्रम व्यवस्था की भी नियोजिना की गई जिसके अन्र्तगत मनुष्य के सम्र्पूण जीवन का चार भागों में विमक्त कर उसके आश्रमगत कर्तव्यों एंव दायित्वों का आंकलन किया गया था। छान्दोग्य उपनिषद्व में धर्म के तीन सकंधों की चर्चा है। जहां निवास करने वाला ब्रहाचारी ब्रहा का ज्ञान प्राप्त करने में अपने को क्षीण कर देता है। इनका अनुगमन करने वाले सभी पूण्य लोक को प्राप्त करते है।